Thursday 17 September 2015

जवीन तो कोरा कागज है जो लिखोगे वही पढोगे। गालियां लिख सकते हो, गीत लिख सकते हो और गालियां भी उसी वर्णमाला से

बनती है। जिससे गीत बनते है। वर्णमाला तो निरपेक्ष हैं, निष्पक्ष है। जिस कागज पर लिखते हो वह भी निरपेक्ष, निष्पक्ष। जिस कलम

से लिखते हो वह भी निरपेक्ष, वह भी निष्पक्ष। सब दांव तुम्हारे हाथ में है। तुमने इस ढंग से जीया होगा, इसलिए व्यर्थ मालूम होता

है। तुम्हारे जीने में भूल है। और जीवन को गाली मत देना।
यह बड़े मजे की बात हैं! लोग कहते है, जीन व्यर्थ हैं यह नहीं कहते कि हमारे जीने का ढंग व्यर्थ है! और तुम्हारे तथाकथित

साधु-संत, महात्मा भी तुमको यही समझाते हैं -जीवन व्यर्थ है।
 मैं तुमसे कुछ और कहना चाहता हूं। मैं कहना चाहता हूं जीवन न तो सार्थक है, न व्यर्थ; जीवन तो निष्पक्ष हैं; जीवन तो कोरा

आकाश है। उठाओ तूलिका, भरो रंग। चाहो तो इन्द्रधनुष बनाओं और चाहो तो कीचड़ मचा दो। कुशलता चाहिए। अगर जीवन व्यर्थ

है तो उसका अर्थ यह है कि तुमने जीवन को जीने की कला नहीं सीखी; उसका अर्थ है कि तुम यह मान कर चले थे कि कोई जीवन

में रेडीमेड अर्थ होगा।
जीवन कोई रेडीमेड कपड़े नही है, कोई सैमसन की दुकान नहीं है, कि गए और कपड़े मिल गए। जिंदगी से कपड़े बनाने पड़ते है। तो

फिर जो बनाओगे वही पहनना पड़ेगा, वही ओढ़ना पड़ेगा। और कोई दूसरा तुम्हारी जिंदगी में कुछ भी नहीं कर सकता। कोई दूसरा

तुम्हारे कपड़े नहीं बना सकता। जिंदगी के मामले में तो अपने कपड़े खुद ही बनाने होते हैं।
ओशो
दीया तले अंधेरा

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