"अकबर महान अगर, राणा शैतान तो शूकर है राजा, नहीं शेर वनराज है अकबर आबाद और राणा बर्बाद है तो हिजड़ों की झोली पुत्र, पौरुष बेकार है अकबर महाबली और राणा बलहीन तो कुत्ता चढ़ा है जैसे मस्तक गजराज है अकबर सम्राट, राणा छिपता भयभीत तो हिरण सोचे, सिंह दल उसका शिकार है अकबर निर्माता, देश भारत है उसकी देन कहना यह जिनका शत बार धिक्कार है अकबर है प्यारा जिसे राणा स्वीकार नहीं रगों में पिता का जैसे खून अस्वीकार है ।।
काबुल की भूमि अभी तक यहाँ के वीरों द्वारा किये गए प्रचंड खड्ग प्रहारों को नहीं भूल सकी है | उन प्रहारों की भयोत्पादक गाथाओं को सुनाकर माताएं बालकों कोआज भी डराकर सुलाती है |महमूद गजनी के समय से ही आधुनिक शास्त्रों से सुसज्जित यवनों के दलों ने अरब देशों से चलकर भारत पर आक्रमण करना शुरू कर दिया था | ये आक्रान्ता काबुल (अफगानिस्तान)होकर हमारे देश में आते थे अफगानिस्तान में उन दिनों पांच मुस्लिम राज्य थे,जहाँ पर भारी मात्रा में आधुनिक शास्त्रों का निर्माण होता था वे भारत पर आक्रमण करने वाले आक्रान्ताओं को शस्त्र प्रदान करते थे बदले में भारत से लूटकर ले जाने वाले धन का आधा भाग प्राप्त करते थे |इस प्रकार काबुल का यह क्षेत्र उस समय बड़ा भारी शस्त्र उत्पादक केंद्र बन गया था जिसकी मदद से पहले यवनों ने भारत में लुट की व बाद में यहाँ राज्य स्थापना की चेष्टा में लग गए | इतिहासकारों ने इस बात को छुपाया है कि बाबर के आक्रमण से पूर्व बहुत बड़ी संख्या में हिन्दू शासकों के परिवारजनों व सेनापतियों ने राज्य के लोभ में मुस्लिम धर्म अपना लिया था और यह क्रम बराबर जारी था | ऐसी परिस्थिति में आमेर के शासक भगवानदास व उनके पुत्र मानसिंह ने मुगलों से संधि कर अफगानिस्तान (काबुल) के उन पांच यवन राज्यों पर आक्रमण किया व उन्हें इस प्रकार तहस नहस किया कि वहां आज तक भी राजा मानसिंह के नाम की इतनी दहशत फैली हुई है कि वहां की स्त्रियाँ अपने बच्चों को राजा मानसिंह के नाम से डराकर सुलाती है | राजा मानसिंह ने वहां के तमाम हथियार बनाने वाले कारखानों को नष्ट कर दिया व श्रेष्ठतम हथियार बनाने वाली मशीनों को वहां लाकर जयगढ़ (आमेर) में स्थापित करवाया |इस कार्यवाही के परिणामस्वरुप ही यवनों के भारत पर आक्रमण बंद हुए व बचे-खुचे हिन्दू राज्यों को भारत मेंअपनी शक्ति एकत्रित करने का अवसर प्राप्त हुआ | मानसिंह की इस कार्यवाही को तत्कालीन संतो ने भी पूरी तरह संरक्षण दिया व उनकी मृत्यु के बाद हरिद्वार में उनकी स्मृति मेंहर की पेड़ियों पर उनकी एक विशाल छतरी बनवाई | यहाँ तक कि अफगानिस्तान के उन पांच यवन राज्यों पर विजय के चिन्ह स्वरुप जयपुर राज्य के पचरंग ध्वज को धार्मिक चिन्ह के रूप में मान्यता प्रदान की गयी व मंदिरों पर भी पचरंग ध्वज फहराया जाने लगा |आज भी लोगों की जबान पर सुनाई देता है -
नाथ सम्प्रदाय के लोग गंगा माई के भजनों में धर्म रक्षक वीरों के रूप में अन्य राजाओं के साथ राजा मानसिंह का यश गान आज भी गाते है |-लेखक स्व.आयुवानसिंह शेखावत,हुडील जी कि कलम से
राजपूताना के इतिहास में सेकड़ो वीर स्वामीभक्त हुये है जिनमे से #श्री_बल्लूचांपावत जी का नाम विशेष रूप से दर्ज है, आज हम उनकी वीरता का किस्सा आप सब को बता रहे हे:- इतिहास के पन्नो में दावा एक महान राजपूत बल्लू चांपावत जी आओ जाने इस महावीर राजपूत योद्धा के बारे में राव अमर सिंह जी राठौड़ का पार्थिव शवलाने के उद्येश्य से उनका सहयोगी बल्लू चांपावत ने बादशाह से मिलने की इच्छा प्रकट की, कूटनितिग्य बादशाह ने मिलने की अनुमति दे दी, आगरा किले के दरवाजे एक-एक कर खुले और बल्लू चांपावत जी के प्रवेश के बाद पुनः बंद होते गए | अन्तिम दरवाजे पर स्वयम बादशाह बल्लू जी के सामनेआया और आदर सत्कार पूर्वक बल्लू जी से मिला | बल्लू चांपावत ने बादशाह से कहा " बादशाह सलामत जो होना था वो हो गया मै तो अपने स्वामी के अन्तिम दर्शन मात्र कर लेना चाहता हूँ और बादशाह में उसेअनुमति दे दी | इधर राव अमर सिंह के पार्थिव शव को खुले प्रांगण में एक लकड़ी के तख्त पर सैनिक सम्मान के साथ रखकर मुग़लसैनिक करीब २०-२५ गज की दुरी पर शस्त्र झुकाए खड़े थे | दुर्ग की ऊँची बुर्ज परशोक सूचक शहनाई बज रही थी | बल्लूचांपावत शोक पूर्ण मुद्रा में धीरे से झुका और पलक झपकते ही अमर सिंह के शव को उठा कर घोडे पर सवार हो ऐड लगा दी और दुर्ग के पट्ठे पर जा चढा और दुसरे क्षण वहां से निचे की और छलांग मार गया मुग़ल सैनिक ये सब देख भौचंके रह गए |दुर्ग के बाहर प्रतीक्षा में खड़ी ५००राजपूत योद्धाओं की टुकडी को अमर सिंह का पार्थिव शव सोंप कर बल्लू दुसरे घोडे पर सवार हो दुर्ग के मुख्य द्वार की तरफ रवाना हुआ जहाँ से मुग़ल अस्वारोही अमरसिंह का शव पुनः छिनने के लिए दुर्ग सेनिकल ने वाले थे,बल्लू जी मुग़ल सैनिकों को रोकने हेतु उनसे बड़ी वीरता के साथ युद्ध करते हुये वीरगति को प्राप्त हुये लेकिनवो मुग़ल सैनिको को रोकने में सफल रहे |
राणा कुम्भामेवाड़ के एक महान योद्धा व सफल शासक थे। 1418 ई. में लक्खासिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मोकल मेवाड़ का राजा हुआ, किन्तु 1431 ई. में उसकी मृत्यु हो गई और उसका उत्तराधिकारी 'राणा कुम्भा' हुआ। राणा कुम्भा स्थापत्य का बहुत अधिक शौकीन था। मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िलों का निर्माण उसने करवाया था। इसके अतिरिक्त और भी बहुत सी इमारतें तथा मन्दिरों आदि का निर्माण भी उसने करवाया। 1473 ई. में राणा कुम्भा के पुत्र उदयसिंह ने उसकी हत्या कर दी। महान शासक राणा कुम्भा ने अपने प्रबल प्रतिद्वन्द्वी मालवा के शासक हुसंगशाह को परास्त कर 1448 ई. में चित्तौड़ में एक ‘कीर्ति स्तम्भ’ की स्थापना की। स्थापत्य कला के क्षेत्र में उसकी अन्य उपलब्धियों में मेवाड़ में निर्मित 84 क़िलों में से 32 क़िले हैं, जिसे राणा कुम्भा ने बनवाया था। मध्यकालीन भारत के शासकों में राणा कुम्भा कि गिनती एक महान शासक के रूप में होती थी। साहित्य प्रेमी वह स्वयं एक अच्छा विद्वान तथा वेद, स्मृति, मीमांसा, उपनिषद, व्याकरण, राजनीति और साहित्य का ज्ञाता था। कुम्भा ने चार स्थानीय भाषाओं में चार नाटकों की रचना की तथा जयदेव कृत 'गीत गोविन्द' पर 'रसिक प्रिया' नामक टीका भी लिखी। निर्माण कार्य राणा कुम्भा ने कुम्भलगढ़ के नवीन नगर एवं क़िलों में अनेक शानदार इमारतें बनवायीं। 'अत्री' और 'महेश' को कुम्भा ने अपने दरबार में संरक्षण प्रदान किया, जिन्होंने प्रसिद्ध 'विजय स्तम्भ' की रचना की थी। राणा कुम्भा ने बसन्तपुर नामक स्थान को पुनः आबाद किया। अचलगढ़, कुम्भलगढ़, सास बहू का मन्दिर तथा सूर्य मन्दिर आदि का भी निर्माण भी उसने करवाया। मृत्यु तथा उत्तराधिकारी 1473 ई. में उसकी हत्या उसके पुत्र उदयसिंह ने कर दी। राजपूत सरदारों के विरोध के कारण उदयसिंह अधिक दिनों तक सत्ता-सुख नहीं भोग सका। उसके बाद उसका छोटा भाई राजमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) गद्दी पर बैठा। 36 वर्ष के सफल शासन काल के बाद 1509 ई. में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र राणा संग्राम सिंह या 'राणा साँगा' (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) मेवाड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा, गुजरात के विरुद्ध अभियान किया। 1527 ई. में खानवा के युद्ध में वह मुग़ल बादशाह बाबर द्वारा पराजित कर दिया गया। इसके बाद शक्तिशाली शासन के अभाव में जहाँगीर ने इसे मुग़ल साम्राज्य के अधीन कर लिया।
आप को एक चिंघाड़ की याद कराता हूँ आज आप को राजपूतो के सबसे प्यारे आभूषण तलवार के बारे में बताता हूँ
ये तो युगों से स्वामीभक्ति करती रही अपने होठो से दुश्मन का रक्तपात करती रही अरबो को थर्राया इसने,पछायो को तड़पाया भी गन्दी राजनीती से लड़ते हुए भी हमारा सम्मान करती रही
ये ही तो राजपूतो आओ मित्रवर मेरी बात सुनो का असली अलंकार है इसी से तो शुरू राजपूतो का संसार है इसके हाथ में आते ही शुरू संहार है इसके हाथ में आते ही दुश्मन के सारे शस्त्र बेकार है
जीवो के बूढा होने पर उसे तो नहीं छोड़ते तो तलवार को क्यों छोड़ दिया बूढे जीवो को जब कृतघ्नता के साथ सम्मान से रखते हो तो मेरे भाई तलवार ने कौन सा तुम्हारा अपमान किया
इसी ने हमेशा है ताज दिलाये इसी ने दिलाया अनाज भी जब भी आर्यावृत पर गलत नज़र पड़ी तब अपने रोद्र से इसने दिलाया हमें नाज़ भी
इसी ने दुश्मन के कंठ में घुसकर उसकी आह को भी रोक दिया जो आखिरी बूंद बची थी रक्त की उसे भी अपने होठो से सोख लिया
मैं तो सच्चा राजपूत हूँ इतनी आसानी से कैसे अपनी तलवार छोड़ दूँ मैं तो क्षत्राणी का पूत हूँ मैं कैसे इस पहले प्यार से मुह मोड़ लू
जैसलमेर। भारत पाकिस्तान सीमा पर स्थित माता तनोटराय के मन्दिर से भला कौन परिचित नही हैं। भारत पाकिस्तान के मध्य 1965 तथा 1971 के युद्ध के दौरान सरहदी क्षेत्र की रक्षा करने वाली तनोट माता का मन्दिर के नाम से विख्यात हैं। तनोट माता के प्रति आम लोगों के साथ साथ सेनिकों में जबरदस्त आस्था है, यहां श्रद्धालु अपनी मनोकामना लेकर दान करने आते हैं । इस मूल मन्दिर के पास में ही श्रद्धालुओं ने रूमालों का शानदार मंदिर बना रखा है, जो देखते बनता हैं। तनोट माता के मन्दिर की देखरेख ,सेवा तथा पूजा पाठ सीमा सुरक्षा बल के जवान ही करते हैं। इस मन्दिर में आने वाला हर श्रद्धालु मन्दिर परिसर के पास अपनी मनोकामना लेकर एक रूमाल बांधता हैं। प्रतिदिन आने वाले सैकड़ो श्रद्धालुओं द्घारा इस परिसर में इतने रूमाल बांध दिए हैं कि रूमालों का एक भव्य मन्दिर ही बन गया। श्रद्धालु मनोकामना पूर्ण होने पर अपना रूमाल खोलने जरूर आतें हैं। मन्दिर की व्यवस्था सम्भालने वाले सीमा सुरक्षा बल के. एस. चौहान ने बताया कि माता के दरबार में आने वाला हर श्रद्धालु अपनी मनोकामना के साथ एक रूमाल जरूर बांधता हैं, मंदिर में 40 हजार से अधिक रूमाल बंधे है। व्यवस्थित रूप से रूमाल बांधने के कारण एक मन्दिर का स्वरूप बन गया है। तनोट माता मन्दिर की ख्याति पिछले पॉच सालों में जबरदस्त बढ़ी हैं। भारत पाक युद्ध 1965 के बाद तो भारतीय सेना व सीमा सुरक्षा बल की भी यह आराध्य देवी हो गई व उनके द्वारा नवीन मंदिर बनाकर मंदिर का संचालन भी सीमा सुरक्षा बल के आधीन है। देवी को शक्ति रूप में इस क्षेत्र में प्राचीन समय से पूजते आये हैं। बहरहाल आस्था के प्रतीक तनोट माता के मन्दिर परिसर में रूमालों का परिसर वाकई दशर्नीय व आश्चर्यचकित हैं।
माता का चमत्कार सितम्बर 1965 में भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध शुरू हुआ। पाकिस्तानी सेना ने तनोट को तीन दिशाओं से घेर लिया और तनोट की ओर बढ़ने लगे। यदि शत्रु तनोट पर कब्जा कर लेते तो वह रामगढ़ से लेकर शाहगढ़ तक के इलाके पर अपना दावा कर सकते थे। इसलिए पाकिस्तानी सैनिकों ने तनोट पर गोले बरसाने शुरू कर दिये।
उस समय मेजर जय सिंह 13 ग्रेनेडियर की एक कंपनी और सीमा सुरक्षा बल की दो कंपनियां के साथ शत्रु सेना से मुकाबला कर रहे थे। दुश्मनों ने तनोट माता के मंदिर के आसपास के क्षेत्र में करीब 3 हजार गोले बरसाए लेकिन अधिकांश गोले अपना लक्ष्य चूक गए। अकेले मंदिर को निशाना बनाकर करीब 450 गोले दागे गए परंतु चमत्कारी रूप से एक भी गोला अपने निशाने पर नहीं लगा और मंदिर परिसर में गिरे गोलों में से एक भी नहीं फटा और मंदिर को खरोंच तक नहीं आई।
माता का ऐसा चमत्कार देखकर सैनिक उत्साहित हो गये और पाकिस्तानी सैनिकों पर कहर बनकर टूट पड़े। इसके बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने जान बचाकर भागना शुरू कर दिया। ऐसे माना जाता है कि सैनिकों को माता ने स्वप्न में आकर कहा था कि जब तक तुम मेरे मंदिर के परिसर में रहोगे मैं तुम्हारी रक्षा करूंगी। सन् 1971 की लड़ाई में भी मां ने ऐसा ही चमत्कार फिर दिखाया था। सैनिकों ने मां के चमत्कार का बखान करने के लिए पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा दागे गये गोलों को मंदिर में संभाल कर रखा है।
ऐसे बना माता का मंदिर लोक कथाओं के अनुसार तनोट माता एक चारण की पुत्री थी जो हिंगलाज माता का भक्त था। चारण की भक्ति से प्रसन्न होकर माता ने इसके घर कन्या रूप में जन्म लिया। छोटी उम्र से ही माता ने चमत्कार दिखाना शुरू कर दिया। माता ने हूणों के आक्रमण से माड़ क्षेत्र की और भाटी राजाओं को सुदृढ़ बनाया। भाटी राजपूत नरेश ‘तणुराव’ने विक्रम संवत 828 में तनोट माता के मंदिर का निर्माण करवा।
तोरण मारने की प्रथा अपने राजपूतो में कब से चरु हुई और क्यों हुई उसका कारण आप जरुर पड़े हकम तोरण मारना प्रथा प्राचीन काल से राजपूतो में चली आ रही हे... लेकिन काफी बन्ना या बाईसा को मालूम नही होगा इसके बारे में की इसका मतलब क्या हे..... बात कई बरसो पुराणी हे... एक राजा की राजकुमारी बहुत ही शैतान थी..... तो बचपन में राजा कहते थे राजकुमारी से की आप शैतानी करोंगे तो आपकी शादी एक चिडा (तोरण) से करा दूंगा... समय बितता गया राज कुमारी बड़ी हो गयी राजा ने राजकुमारी के लिए बहुत ही सुंदर राजकुमार से विवाह निचित किया.... जब राजकुमार अपनी बारात लेके राजा के दरबार पहुचे तो राजकुमार ने देखा एक चिडा ( तोरण ) भी अपनी बारात लेके पहुचा हुआ था.. चिडे ने राजा को बचपन में कई बात याद दिलाई की अपने कहा था ना की अपनी बेटी की विवाह मुझसे करवाओंगे.. अब राजा वचन में बध गया.... तब राजकुमार ने चिडे का वध करके अपनी राजकुमारी को प्राप्त किया... इसलिए राजपूत बन्ना जब विवाह के लिए मंडप में जाते हे तो तोरण ( चिडे के चित्र ) का अपनी तलवार से वध करके राजपूत बाईसा को प्राप्त करते हे... जय राजपुताना